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नई दिल्ली, 07, अक्टूबर 2023

कविता 

संजीव शर्मा 

 

यूँ तो जिंदगी हसीन और खुशगवार है।
किसी नजर की, हम पर भी नजर शुमार है।
ना जाने जमाने की कैसे रहनुमाई आई,
फिजां बदली और बदहाली आई I
अब तो ये आलम है कि धुआं ही बचा है,
राख बची ना कोई चिराग बचा है।
पर गुमा जमीर को अब भी  बेशुमार है,
बदलेगा मौसम, बस उसका इंतज़ार है।
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कुरेदा यादों  के खंजर ने कुछ ऐसे।
जख्म हरे हो गए, जो भरे थे जैसे तैसे।
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तुमने याद दिलाया तो याद आया I
हमसे ही कहीं पीछे छूटा अपना हमसाया

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